मेरा प्रिय लेखक पर निबंध- Mera Priya Lekhak Essay in Hindi

In this article, we are providing an Mera Priya Lekhak Essay in Hindi मेरे प्रिय लेखक पर निबंध हिंदी में | Essay in 100, 150. 200, 300, 500, 800 words For Students.

मेरा प्रिय लेखक पर निबंध | My Favourite Author Essay in Hindi ये हिंदी निबंध class 4,5,7,6,8,9,10,11 and 12 के बच्चे अपनी पढ़ाई के लिए इस्तेमाल कर सकते है।

मेरा प्रिय लेखक पर निबंध- Mera Priya Lekhak Essay in Hindi

 

( Essay-1 ) Mera Priya Lekhak Nibandh 200 words

हमारे प्रिय लेखक उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का जन्म सन् 1880 में काशी के निकट, लमही नामक गांव में एक साधारण परिवार में हुआ। इनका बचपन का नाम धनपतराय था। पिता बाबू अजायबराय डाकखाने में मुंशी का कार्य करते थे। प्रारंभ में ये गांव में एक मौलवी से उर्दू सीखा करते थे। मां की असमय मृत्यु इनका बचपन का प्यार छीन लिया। इनकी सोतेली मां का इनके साथ बड़ा दुर्व्यवहार रहता था।

प्रेमचंद के साहित्य में राष्ट्र चेतना व जनजागरण के स्वर भरे हुए थे । प्रेमचंद के काल में भारतीय समाज में अनेक विषमताएं व्याप्त थीं। साथ ही उन विषमताओं के विरूद्ध भी समाज में आवाज़ उठ रही थी। किसान ज़मींदारों के चंगुल से छूटने के लिए छटपटा रहा था। नारी अपने ऊपर लगे सामाजिक बंधन तोड़कर ऊपर उठने के चेष्टा कर रही थी। सामाजिक कुरीतियां मुंह खोले भारतीय समाज को ग्रस कर रही थीं, जिनका समाज में खुला भंडाफोड़ हो रहा था। चहुं ओर शोषण, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, पाखंड, विषमता लूट-खसूट मची हुई थीं। ब्रिटिश शासकों का दमनचक्र अपनी पराकाष्ठा पर था। इस विषम परिस्थितियों में प्रेमचंद की कला का विकास हो रहा था। प्रेमचंद शोषित, दीन-हीन, दलित, दुर्बलजनों के पक्षधर बनकर जनजागरण का कार्य करने लगे। उन्होंने सोई हुई, दबी हुई जनता को जागृत किया। अपने उपन्यासों, कहानियों व पत्रिकाओं के द्वारा जनता में एक नयी जान डाली ।

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( Essay -2 ) Mera Priya Lekhak Essay in Hindi | मेरे प्रिय लेखक पर निबंध ( 500 words )

प्रस्तावना

आधुनिक कहानीकारों और उपन्यासकारों में सर्वाधिक प्रसिद्ध मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय लेखक हैं। गरीबी में जन्मे-पले 15 वर्ष की आयु में पिता की छत्रछाया से वंचित, सौतेली माँ के अत्याचार और कर्कशा पत्नी के दुर्व्यवहार को सहकर भी परिवार का भरण-पोषण करते रहने वाले प्रेमचन्द ने कहानी और उपन्यास कला तथा मानवता की हर ऊँचाई को पार किया, परन्तु आत्म-सम्मान और ईमानदारी को कभी नहीं छोड़ा। इसीलिए दुनिया के गिने-चुने महान साहित्यकारों में से एक माने जाने वाले प्रेमचन्द को अन्तिम समय तक अपनी दवा-दारू तक के पैसे नसीब नहीं हो सके ।

परिचय

महान लेखक प्रेमचन्द का जन्म बनारस के पास लमही नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। पिता अजाबराय डाकखाने में मुंशी थे और पुत्र को नाम दिया था धनपतराय, जो उसे जीवनभर नहीं मिल सका। प्रेमचन्द पढ़ ही रहे थे कि पिता का देहान्त हो गया । बनारस में पाँच रुपये की ट्यूशन पढ़ाकर अपनी पढ़ाई और घर का खर्च चलाते थे। बड़ी मुश्किल से बी.ए. पास की। अध्यापक और स्कूल इन्सपैक्टर की नौकरी की।

साहित्य साधना

पहली पत्नी से दुखी धनपतराय (प्रेमचन्द) ने बाल-विधवा शिवरानी से दूसरा विवाह किया। पहले नवाबराय और बाद में प्रेमचन्द नाम से उर्दू में कहानियाँ लिखीं। बाद में हिन्दी में लिखना आरम्भ किया। ‘जागरण’ और ‘हंस’ नाम से दो पत्रिकाओं का संचालन किया, जो आखिर तक घाटे में ही चलते रहे । प्रेमचन्द ने तीन सौ कहानियाँ, बारह उपन्यास और दो नाटक लिखे । ‘माधुरी’, ‘मर्यादा’, ‘जागरण’ तथा ‘हंस’ नामक पत्रिकाओं का सम्पादन संचालन किया। अध्यापक और स्कूल-इन्सपैक्टर की नौकरी करने वाले प्रेमचन्द कुछ समय तक फिल्म-जगत में भी गए और ‘मजदूर’ नामक फिल्म बनाई, परन्तु फिल्म जगत का वातावरण अच्छा नहीं लगा और एक वर्ष बाद ही गाँव लौट आए। प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास हैं— ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ ।

प्रेमचन्द ही वह लेखक थे, जिन्होंने कहानी और उपन्यास को जासूसी और तिलस्मी गोरख धन्धों से निकाला। उनमें जीवन की वास्तविक घटनाओं, परिस्थिति और समस्याओं को स्थान दिया। उनकी कहानियों और उपन्यासों की समस्याएँ अधिकतर पारिवारिक और सामाजिक हैं। उन्होंने इन्हें ऐसी भाषा में लिखा, जिसे आम आदमी समझ सका है। इस तरह प्रेमचन्द ने कहानी और उपन्यास लिखने में नया युग आरम्भ ही नहीं किया, बल्कि उस युग के प्रतिनिधि बने, हिन्दी और भारत के नहीं संसार के महान लेखक स्वीकार किए गए, परन्तु उन्हें देखकर ऐसा लगता ही नहीं था कि वे इतने महान साहित्यकार हो सकते हैं, जूतों से निकली उँगलियाँ, घुटनों तक धोती और गाढ़े का कुर्ता पहने प्रेमचन्द ऐसे गंवइया मुच्च से लगते थे जैसे कोई देहाती अभी गाँव से चला आ रहा हो।

हिन्दी साहित्यकारों की नई पीढ़ी इन्हीं प्रेमचन्द के हाथ की गढ़ी हुई है, परन्तु बीमारी और अभावों ने उन्हें अधिक समय नहीं दिया। 1936 में इस युगान्तरकारी महापुरुष का निधन हो गया।

 

( Essay-3 ) Long Mera Priya Lekhak Essay in Hindi ( 1000  words )

प्रस्तावना

विश्व-साहित्य के इतिहास में ऐसे अनेकानेक लेखक उत्पन्न हुए हैं, जो अपनी महान रचनाओं के कारण अमर हो गए हैं। आधुनिक युग में मेटरलिंक, हॉफमैन, रवींद्रनाथ ठाकुर, रोम्या रोला, अनातोले फ्रांस, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ टॉमस मान, गाल्सवर्दी, यूजेन ओ नील, पर्ल बक, हर्मन हेस, आंद्रे जीद, विलियम फॉकनर, बट्रेंड रसेल, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, आलबेयर कामू, बोरिस पास्तरनाक, जीन स्टेनबेक, बालजॉक, टॉल्स्टॉय, रस्किन, तुर्गने, दोस्तोवस्की, गोकीं जैसे विश्वविश्रुत लेखक हुए, किंतु मुझे अपनी भाषा हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद जितने पसंद आए, उतना कोई अन्य नहीं ।

यह बात दूसरी है कि प्रेमचंद नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत नहीं हुए। किंतु, हिंदीभाषी जनसमुदाय ने उन्हें जो अपनी अपार श्रद्धा का अर्घ्य दिया है, वह विश्व के महत्तम पुरस्कारों से भी महान है। प्रेमचंद कभी राजकीय सम्मानों से समलंकृत नहीं हुए। उन्हें जीवन में कभी सुखोपभोग नहीं प्राप्त हुआ, जली हुई बीड़ी को दुबारा – तिबारा पीते रहे, फिर भी उन्होंने जो शाश्वत साधना का सरसिज खिलाया, वह अपने सारस्वत सौरभ से दिग्दिगंत को परिपूरित करता है ।

कौन लेखक किसी के लिए सबसे प्रिय हो सकता है—इसमें वैयक्तिक रुचि भी काम करती किंतु मेरे लिए वही लेखक सर्वाधिक प्रिय हो सकता है, जो केवल, कल्पना के कमनीय पंखों पर सवार होकर व्योमविहार न करे, वरन् जिसके साहित्य में यथार्थ जीवन की स्पष्ट झलक हो। वह साहित्य, जो केवल यौनभावनाओं को उत्तेजित करता हो, जिसमें वासना का विजृंभण हो, मेरी दृष्टि में हेय है। साहित्य वह नहीं, जिसमें केवल इत्र की खुशबू हो, बल्कि हमारी सोंधी मिट्टी की खुशबू हो – ऐसा साहित्य, जिसमें हमारे युग, हमारे समाज, हमारे जीवन ही प्रतिबिंबित न होते हों, वरन् पढ़-सुनकर हम अपने जीवन और समाज को सँवार भी सकते हों। लेखक का कार्य समाज में वर्ग, जाति, संप्रदाय जैसी संकीर्णताओं का विषवमन करना नहीं है, वरन् उसका काम दिग्भ्रांत समाज का अमृत-सिंचन है। निर्भीकता, व्यापकता और सहजता के संगम पर अवस्थित लेखक ही हमारा कंठहार हो सकता है। जो लेखक कूटशैली में लिखता है, जिसके लिए मस्तिष्क को पूरा व्यायाम करना पड़ता है, वह मुझे ग्राह्य नहीं, वरन् जिसकी रचना गंगाजल की तरह सर्वसुलभ तथा शीशे की तरह पारदर्शी हो, वही मुझे सर्वाधिक प्रिय मालूम पड़ता है।

कीरति भनिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥ – रामचरितमानस

साहित्य की सरिता जब जनसमुदाय के हर्ष-विषाद से तरंगित होती है, तभी वह भागीरथी की तरह ग्राह्य होती है, अन्यथा वह कर्मनाशा के सदृश त्याज्य है । प्रेमचंद ने लगभग 36 वर्षों के अपने साहित्यिक जीवन में तीन सौ के लगभग कहानियाँ, एक दर्जन उपन्यास, तीन-चार नाटक, अनेक निबंध तथा बालोपयोगी साहित्य की रचना की। उन्होंने दूसरी भाषाओं से अनुवाद किया है, किंतु उनकी अमर कीर्ति का मूलाधार ये ही रचनाएँ हैं-

उपन्यास – ‘गबन’, ‘निर्मला’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘सेवासदन्’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘गोदान’, ‘मंगलसूत्र’ (अपूर्ण) ।

प्रमुख कहानियाँ – ‘पूस की रात’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘आत्माराम’, ‘पंच-परमेश्वर’, ‘नशा’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘इस्तीफा’, ‘दफ्तरी’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘कफन’, ‘नमक का दारोगा’, ‘रानी सारंधा’, ‘घासवाली’, ‘लांछन’, ‘सौत’, ‘सत्याग्रह’, ‘प्रायश्चित्’, ‘कामना’ ।

नाटक -‘कर्बला’, ‘प्रेम की वेदी’, ‘संग्राम’, ‘रूठी रानी’ ।

निबंध – ‘कुछ विचार’, ‘निबंध संग्रह’ ।

अनुवाद- ‘टॉल्सटॉय की कहानियाँ’, ‘अहंकार’, ‘आजाद-कथा’ ।

प्रेमचंद ने अपनी कहानियों को न केवल वर्णनाडंबर से विमुक्त किया, वरन् उसे प्रथम बार जीवन की संवेदनाओं से पूर्ण किया। उन्होंने मानव मनोविज्ञान का चित्रण बड़ी सुगमता से किया। प्रेमचंद की कहानियाँ केवल मनोविनोद का उपकरण नहीं हैं, वरन् जीवन के सघन शिलीभूत क्षणों की बड़ी ही मार्मिक एवं सजीव अभिव्यक्ति हैं, जिनमें गहराई तक डूबने की आवश्यकता है।

प्रेमचंद के पूर्व देवकीनंदन खत्री तथा किशोरीलाल गोस्वामी के तिलस्मी ऐयारी उपन्यासों का जमाना था। उपन्यास या तो मनः प्रसादन का साधन था अथवा अभिभावक की नजर बचाकर पढ़ने का रहस्यपुराण । प्रेमचंद ने पहली बार उपन्यास को खुली हवा दी, प्रशस्त भूमि प्रदान की। जो उपन्यास अस्पृश्य था, प्रेमचंद की लेखनी का पारसस्पर्श पाकर स्तरीयता से मंडित हो गया। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में शोषितों, दलितों और पीड़ितों की जीवनगाथा बड़े ही हृदयवेधक एवं सशक्त शब्दों में व्यक्त की है। जनसमाज में व्याप्त विषमता के अनगिनत चित्र उनके कथा-साहित्य में भरे पड़े हैं। तदयुगीन क्षोभ एवं असंतोष की स्वरलहरियों को बारीकी से पकड़ समग्र वायुमंडल में उत्क्षिप्त करने का श्लाघ्य प्रयास उन्होंने किया है। उनकी सारी रचनाओं में सामंती समाज, उसके अत्याचार, रजवाड़ों का खोखला जीवन, नौकरशाही की पतनोन्मुख संस्कृति के साथ किसान, मजदूर, अध्यापक, छात्र और साधारण लोगों की विकासोन्मुख संस्कृति का भी अंकन हुआ है। प्रेमचंद ने अपने आरंभिक उपन्यासों में समाधान खोजने का प्रयत्न किया था। उन्होंने सेवासदन खोलने और कायाकल्प करने की बात कही थी, किंतु पीछे चलकर उनके विश्वासों का शीशा चकनाचूर होता नजर आता है। इसलिए, ‘गोदान’ में कोई समाधान नहीं है, वरन् समस्याओं का निस्सीम सागर ही लहराता दीखता है। बीसवीं सदी के आरंभिक चार दशकों की, अपने राष्ट्र की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक हलचलों का चित्र प्रेमचंद के साहित्य में स्पष्टता से उभर आया है। उनका साहित्य पराधीन भारत की धड़कनों एवं स्वतंत्रता प्राप्ति की आकांक्षाओं का सुंदर संगम है।

प्रेमचंद की दृष्टि बड़ी व्यापक एवं सारग्राहिणी थी। किसानों की झोपड़ी से राजमहल तक, बड़े-बड़े बैंकों के अधिपतियों तथा मिल मालिकों से छोटे चमारों और मजदूरों तक की रहन-सहन, आचार-विचार आदि का बड़ा ही मार्मिक चित्रण उन्होंने किया है। प्रेमचंद के साहित्य का आधार ऐसे तो उत्तरप्रदेश का पूर्वी अंचल है; किंतु उनके साहित्य में संपूर्ण मानवसमाज की आशा-आकांक्षाओं की कहानी चित्रित हुई है। वे सदा मानव की एकता, समता तथा स्वाधीनता के लिए जूझते रहे, अभावग्रस्त मानव की वकालत करते रहे। किंतु, इतना होते हुए भी उनका साहित्य निराशा से हमें बोझिल नहीं करता, वरन् एक नई आशा की किरण से दीप्त करता है। उनका साहित्य समाजवादी जीवनदर्शन, जनवादी भावना, धर्मनिरपेक्षता, मानवता, विश्व-बंधुत्व आदि का उद्घोष करता है। उन्होंने साहित्य के अनुपम उद्यान को अपने अंतस के रस से सींचा है। यही कारण है कि इसका परिमल हमारे मुरझाते हृदय को प्रफुल्लित करता है। उन्होंने कभी अर्थप्राप्ति के लिए साहित्य नहीं रचा, उत्प्रेरणा से रचा। उनका जीवन एक दीपक की तरह था, जो जलकर सबको प्रकाश देता रहता है। आदर्श और यथार्थ के कूल-कछारों के बीच प्रेमचंद की साहित्य-सरिता कल-कल छल-छल करती हुई हमें अपने दिव्य संगीत से मोहती है। उनका साहित्य जनजीवन की गीता है; सत्यं, शिवं एवं सुन्दरम् का त्रिवेणी संगम है। उनके साहित्य में मानव-मन का एक नया क्षितिज हमारी आँखों के समक्ष उभरता है।

निष्कर्ष

मेरे विचार से वही साहित्य खरा है, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सर्जन की प्रेरणा एवं सच्चाई का प्रकाश हो । प्रेमचंद का साहित्य इस कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है। सचमुच, उपन्यासकार सम्राट प्रेमचंद अपनी अंतर्दृष्टि, विलक्षण प्रतिभा, गहरी संवेदना एवं अद्भुत चित्रणशक्ति के कारण हमारे लिए सदा हृदयहार बने रहेंगे।

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