पुस्तक की आत्मकथा हिंदी निबंध- Essay on Pustak ki Atmakatha in Hindi

In this article, we are providing an Essay on Pustak ki Atmakatha in Hindi पुस्तक की आत्मकथा निबंध हिंदी | Nibandh in 200, 300, 500, 600, 800 words For Students. Pustaki Ki Atmakatha Hindi Nibandh

पुस्तक की आत्मकथा हिंदी निबंध- Essay on Pustak ki Atmakatha in Hindi

Pustak ki Atmakatha

( Essay-1 ) Nibandh Pustak Ki Atmakatha in Hindi

रामायण पढ़ते-पढ़ते मुझे नोंद सी आने लगी । पुस्तक हाथ से छूट कर नीचे गिरी । धड़म्म की आवाज़ से नींद टूट गई। देखा तो पुस्तक नीचे पर पड़ी थी।

अपना अपमान देख कर उसने मुझे डांटते हुए कहा, तुम्हारे पूर्वजों के लिए मैं दुष्प्राप्य थी । क्योंकि उस समय में भोजपत्र या ताम्रपत्र पर लिखी जाती थी । मानव अपने मनोभावों को मुझ पर उंडेल देता था । मैं इन्हें अपने हृदय में संजोए रखती थी। उस समय मेरा मूल्य आज के मूल्य से सौ गुना अधिक था । उस समय मेरा बड़ा सम्मान और आदर था । राजमहलों और देवालयों के पुस्तकालयों की शोभा को मैं द्विगुणित करती थी। मेरे बिना बड़े से बड़ा पुस्तकालय भी अधूरा समझा जाता था । मैं आज के समान सर्वसुलभ नहीं थी । बड़े से बड़े सेठ को भी मुझे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना पड़ता था ।

समय ने पलटा खाया । मनुष्य के हाथ लगा कागज का आविष्कार । उसने घास फूस, चिथड़े, केले के डंठल, खड़िया मिट्टी आदि को पानी में गला कर मशीनों द्वारा कागज का निर्माण किया । अब मैं नवीन सज-धज के साथ पाठकों के सामने आई । मेरे इस आकार में प्राचीनता का चिन्ह नहीं था। पर इस लम्बी यात्रा को तय करने में मुझे बड़ा कष्ट हुआ । स्मरण रखो कि दुःख के बाद ही तो सुख मिलता है । छेद होने के बाद ही बांसुरी में से मनमोहक गीत निकलते हैं । इसलिए मैंने समस्त दुःख सहर्ष सहे । इस के बाद मुझे कांट-छांट करके व्यापारी के पास भेज दिया गया। वहां मुझे अलमारी में झाड़-पोंछ कर रख दिया गया । अब मैं बन्दी बन गई ।

एक दिन एक धार्मिक व्यक्ति आया और वह मुझे खरीद कर ले गया । उसके कोमल हाथों का स्पर्श पा कर मैं आनन्द-विभोर हो गई । मुझे ऐसा लगा कि वास्तव में मुझे चाहने वाला अब मिला है । मैं अपने भाग्य की सराहना करने लगी । वह एकान्त में बैठ कर मेरे रस का पान करता । कभी वह रो पड़ता और कभी हंस पड़ता । पढ़ने के बाद वह मुझे बनारसी साड़ी में बांध कर अलमारी में रख देता । इस समय भी मेरा मूल्य बहुत अधिक था क्योंकि मेरे निर्माण में मनुष्य की पर्याप्त परिश्रम करना पड़ता था । साधारण जन को तो मैं अब भी सुलभ नहीं थी । मेरे निवास स्थान भी मन्दिर पुस्तकालय, आचार्यों के अध्ययन कक्ष व विद्यालय ही थे ।

अब आधुनिक यांत्रिक युग आया । अब विद्य तू चालित यन्त्रों से मुझे छापा जाने लगा। अब मेरे रूप में निखार आ गया। जो भी मुझे देखता है वह लट्टू हो जाता है । मैं अपने रूप पर इतराने लगी। पर मुझे क्या पता था कि मेरा सम्मान घटने वाला है । आसानी से मिलने वाली वस्तु का सम्मान घटना स्वाभाविक ही है । अब मैं सर्वजन सुलभ हू । किसानों-मज़दूरों की झोंपड़ियों में भी अब मैं विराजमान हूँ । पहले मैं उनके गोबर से सने हाथों के स्पर्श से हिचकिचाती थी। पर अब मैंने अपने आप को बदल लिया है। अब मैं समाजवादी हूं क्योंकि आज का युग समाज- बाद का युग है । अब मैं राजा महाराजाओं की सम्पत्ति न बन कर जनसाधारण की बन गई हूं ।

मेरा शरीर भले नश्वर हो, पर मेरी आत्मा अमर है । इसी कारण देश-विदेश में मेरा सम्मान है । जन-जन के हृदय का मैं हार बनी हुई हू । प्रत्येक भारतीय की मैं बाचारसंहिता हूँ । मानव को सुख-शांति का सन्देश देने वाली एकमात्र पुस्तक हूँ। मुझे विश्वास है कि धार्मिक पुस्तक होने के कारण मेरा सम्मान सदा एक सा बना रहेगा।

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प्रस्तावना

दुनिया पुस्तक से शुरू होकर वापस पुस्तक पर खत्म हो जाती है। हम कितना कुछ सीखते हैं पुस्तक से, बचपन से बुढ़ापे तक हम सीखते ही रहते है, अच्छी पुस्तक किस्मतों को बदलने का दम रखतीं है। डिजिटल समय के कारण दुनिया ने अब किताबों को रख दिया है और मोबाइल फोन को हाथ में ले लिया है।

टेक्नोलॉजी की ये दुनिया स्पीड तो देती है लेकिन सहूलियत और मन के सुकून को हमसे छीन लेती है। आज मैं आपको अपनी आत्मकथा बताऊंगी। मैं कुछ कागजों से बनकर तैयार होती हूँ, मेरा नाम किताब है, मैं इस बड़ी सी दुनिया की एक छोटी सी बस्तु हूँ।

वैसे तो मैं हर किसी के घर मे रहती हूँ लेकिन मेरा घर पुस्तकालय है। मेरा जन्म करोड़ो वर्ष पहले हुआ था जहां मैं पेड़ के सूखे पत्तों का समूह हुआ करती थी, लेकिन आज के समय में मैं घास की लुगदी से बने कागज से बनती हूँ, मैं अनेक रंगों में बटी रहती हूं।

मुझमें अनेकों कहानियां, कविताएँ, उपन्यास, ज्ञानवर्धक तथ्य लिखे रहते हैं, बच्चे मुझे पढ़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं और बूढ़े भी मुझे पढ़कर अपने ज्ञान में बढ़ोत्तरी करते हैं। मैं लोगों का मनोरंजन भी करती हूँ और समय-समय पर उन्हें सही और गलत का आभाष भी कराती हूँ।

लोग मुझे मां सरस्वती का अंग मानते हैं और मेरी पूजा करते हैं, मैं भी बिना किसी भेदभाव के दुनिया को बराबर ज्ञान देती हूँ। महाऋषियों ने मुझमें अनेकों मंत्र और महाकाब्य लिखे। बड़े-बड़े ग्रंथ मुझमें ही लिखे गए है। मैं धर्म और संस्कृति की धरोहर हूँ। मैंने करोड़ों वर्ष पुराने इतिहास को कुछ पन्नो में मानवजाती के सामने रख दिया।

किसी ने कहा था कि – किताबेंं मनुष्य की सबसे अच्छी दोस्त हैं, लेकिन आज की भीड़ भरी दुनिया में मैं अकेली रह गई हूँ जहाँ बहुत कम लोग ही मेरे दोस्त हैं। आज मैं पुस्तकालय की चार-दीबारों में बन्द पड़ी रहती हूं, मुझे बहुत कम लोग ही हाथ लगाते है, मेरे पृष्ठों पर मिट्टी लग गई है और और मेरे पन्नो को चूहों ने कुतरना शुरू कर दिया है।

आज आधुनिक समय मे दुनिया ने बहुत सारी तरक्की कर ली है जहां मेरी जगह अब तमाम इलेक्ट्रॉनिक बस्तुएं (मोबाइल, टेलीविजन, लैपटॉप) आ गईं है जिन्होंने मुझे लोगों से दूर कर दिया है। जहां से मैं अब अकेली पड़ चुकी हूँ, मुझे इंतजार है अब दोबारा से जब लोग सहूलियत से बैठकर मुझे खोलेंगे और पढ़ेंगे।

मैं चाहती हूँ कि ये तेज रफ्तार दुनिया प्रगति करे लेकिन इस तरह भाग कर नही, भागने में लोग एक दूसरे से बिछड़ जाते हैं, जहां लोगों के हाथों में सफलता तो आती है लेकिन अपनापन खत्म हो जाता है। वो भाव खत्म हो जाते हैं जो दुनिया को चलाने के लिए जरूरी हैं और वो भाव कभी भी मोबाइल नही दे सकता। उसके लिए आपको मेरे पृष्ठों को एक बार फिर से खोलना होगा।

उपसंहार- 

बदलती दुनिया को फिर से किताबों की ओर लौटना चाहिए क्योंकि जो जानकारी और खुशी किताबें देतीं हैं वो मोबाइल फोन कभी नही दे सकती। बच्चे हों या बूढ़े सभी जीवनपर्यंत किताबों से ही सीखते रहते हैं। किताबें धीरे-धीरे मनुष्य को सफलता के रास्ते तक ले जाती है और अज्ञान रूपी धूल को जीवन से हटाकर और ज्ञान का प्रकाश जीवन मे उजागर करती हैं।

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दोस्तों आपके इस लेख के ऊपर Pustak ki Atmakatha in Hindi (पुस्तक की आत्मकथा) पर क्या विचार है और आपने अभीतक कितनी किताबे पढ़ रखी हैं? हमें नीचे comment करके जरूर बताइए।

पुस्तक की आत्मकथा‘ ये हिंदी निबंध class 1,2,3,4,5,7,6,8,9 and 10  के बच्चे अपनी पढ़ाई के लिए इस्तेमाल कर सकते है। यह निबंध नीचे दिए गए विषयों पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

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