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Essay on Autobiography of a Book in Hindi- पुस्तक की आत्मकथा पर निबंध
भूमिका- “प्रत्येक वस्तु का बनना और बिगड़ना अथवा जीवन और मृत्यु अनिवार्य है। आज तो वस्तु सुन्दर और आकर्षक है, कल वही वस्तु असुन्दर और अपकर्षक हो जाती है। निर्माण की प्रक्रिया निरंतर बनी रहती है। इसमें वस्तुएँ रूप और आकार धारण करती है। मुझे अपने जो इस प्रकार रद्दी का टुकड़ा समझ कर फेंक दिया है क्या आपने यह भी सोचा है कि मेरा कितना महत्त्व है ? मेरा यह रूप कैसे बना ?” कागज के टुकड़े की यह पीड़ा सुनकर मैं हैरान हो गया। मैंने पूछा—क्या तुम्हारी भी कोई अपनी कहानी है ?” कागज का वह टुकड़ा बोल उठा–हाँ, मेरी भी एक कहानी है। मैंने भी रूप और आकार । धारण किया है। मैं उस सारी प्रक्रिया को जानता हूँ जिसके द्वारा मेरा निर्माण हुआ है। सुनो मैं तुम्हें वह सारी कहानी सुनाता है। मेरे विषय में तुम अब सब बातें ध्यान पूर्वक सुन लो।” और इस प्रकार कागज का वह टुकड़ा कहने लगा, अपनी आत्मकथा सुनाने लगा।
मेरा निर्माण- मैं एक पुस्तक के रूप में था और उससे फटकर तुम्हारे हाथ आता था। मुझे रद्दी समझ कर दुकानदार को बेच दिया गया और उसने मेरे ऊपर सामान रखकर तुम्हें दिया। अपनी यह स्थिति देखकर मैं तुम्हें अपनी आत्मकथा सुनाती हूँ जब मैं पुस्तक के रूप में थी। जिस सुन्दर रूप में तुम अब किताबों को देखते हो आरम्भ में वह रूप नहीं था हमारा। ऋषि और मुनि लोग प्राचीन काल में आश्रमों में जब अपने शिष्यों को ज्ञान देते थे तो केवल बोलकर ही समझा लेते थे और शिष्य उसे सुनकर ग्रहण कर लेते। धीरे-धीरे मुझे बनाने के लिए भोजपत्रों का सहारा लिया गया। भोज पत्रों को सीधा करके, उन्हें भली प्रकार सपाट बनाकर मेरे अनेक पेच बांध दिए जाते थे और तब उन पर काली स्याही से मोर पंख आदि से मेरे ऊपर लिखा जाता था। आज भी मेरा यह प्राचीन रूप तुम्हें उपलब्ध हो सकता है। लेकिन मनुष्य ने मुझे और सुन्दर रूप देने का प्रयास किया और इसमें सबसे पहले सफलता मिली चीन वालों को। कागज रूप में मैं वहां सबसे पहले बनी। मेरे कागज़ रूप में बनने की कहानी पीड़ा और दर्द से भरी है। बाँस, घास, तथा सन आदि से मुझे बनाया जाता हैं। आजकल तो मेरे रूप को बनाने के लिए पुराने कागज को भी प्रयोग करते हैं। इन सबको पहले एक लुग्दी का रूप दिया जाता है। मेरे कागज़ बनने में कुछ रासायनिक पदार्थ साथ डाल दिए जाते हैं और मैं मशीनों में खूब मथी जाती हूँ। मशीनों की ही सह्मयता से लुग्दी को मथकर, पका कर फिर कागज को अनेक रूपों में तैयर किया जाता है। आज कागज रूप में बहुत सुन्दर कागज़ बनकर भी आती हैं, और साधारण कागज़ पर भी मैं लखी जाती हैं। बड़ी-बड़ी मशीनें फिर कागज को काटती है। कागज़ रूप में आ जाने पर मरा महत्त्व बढ़ जाता है और मुझे मिल मालिकों से अब प्रेम वाले, छापाखाना वाले, खरीद लेते हैं।
मेरा भौतिक तत्त्व कागज बन गया। अब पुस्तक के रूप में मैं कैसी आती हैं, यह भी सुन लो। लेखक कवि और साहित्यकार के जो विचार और भाव होते हैं, उन्हें यह मेरे कागज़ के शरीर पर लिखता है। इस क्रम में पूर्वजों का संचित ज्ञान, लेखक के अपने संस्कार, समाज, भावना और उसका मुख्य विषय अक्षर बन कर मेरे शरीर के ऊपर लिखे जाते है। ऐसा भी होता है कि दूषित मनोवृत्ति वाले लोग अपने गन्दे विचारों को भी असामाजिक बातों को भी प्रकट करते हैं। सरस्वती के पुजारी ज्ञान के प्रकाश को फैलाने के लिए मेरा सहारा लेते हैं। कवि अपनी प्यार और सौन्दर्य की भावना, व्यथा भी मेरे पृष्ठ पर अंकित करता जाता है। अब मैं कच्चे रूप में पुनः छापाखाने में पहुंचती हूं। प्रेस वाले बने हुए अक्षरों को जोड़कर ‘कम्पोजिंग करते हैं। धातु के बने एक-एक अक्षर उठाते हैं, लेखक जो लिख कर देता है, उसके ही अनुसार वे ‘कम्पोजिटर’ ध्यान और तत्परता से छापने के लिए मुझे तैयार करते हैं। सारा रूप कम्पोजिंग हो जाने पर छपाई आरम्भ होती है। तब मेरा शरीर बड़ी-बड़ी मशीनों की चोट सहन करता है। अब मैं छपे रूप में सामने आ जाती हूं। अब कम्पोजिटर की जो गलतियाँ होती है उन्हें ‘प्रफूरीडर’ संशोधित करता है। फिर कम्पोजिटर गलतियाँ दूर करता है। यह क्रम तीन-चार बार तक चलता है। जब लगभग सारी गलतियाँ दूर हो जाती है तब मुझे अच्छे कागज़ पर छापना शुरू कर देते हैं। आजकल तो मेरा रूप कम्प्यूटर भी तैयार करता है। अब मुझे नेगेटिव बना कर रखा जाने लगा है और इस विधि से मैं बहुत ही जल्दी रूप पा लेती हूँ। अब छपे हुए पृष्ठों को भी संवारने-सजाने और जोड़ने का काम आरम्भ होता है। यहाँ भी मुझे बड़ी पीड़ा सहन करनी पड़ती है। कभी मशीनों से, कभी चाकू और कभी सुई से मुझे काटा जाता है, बँधा जाता है छेदा जाता है। मशीनें मेरे पृष्ठों को सिल देती है और इसका मेरा पुस्तक रूप में बड़ा या छोटा कोई भी आकार तैयार होता है। ‘बाइन्डिंग’ का यह काम अन्तिम नहीं होता। मेरे सुन्दर मुख-पृष्ठ तैयार होते हैं। कहीं तो मेरा मुख पृष्ठ बहुत ही सुन्दर रंगीन और आकर्षक होता है और कहीं साधारण मेरी कीमत निर्धारित की जाती है। अब मैं हजारों की संख्या में, बनकर, सजकर दुकान में आ जाती हूं। ये प्रकाशक लोग मुझे अब बेचने का कार्य आरम्भ करते हैं। छोटे-बड़े दुकानदार, विद्यार्थी, अध्यापक या अन्य कोई भी पाठक मुझे खरीदता है।
मेरी यात्रा- अब तुम मेरी यात्रा की छोटी सी कहानी भी जान लो। प्रकाशक के गोदाम में पड़ी-पड़ी हम पुस्तकें कभी तो बहुत परेशान रहती है और कभी प्रकाशक हमें तुरन्त बाँध लेता है। हमारी गठ्ठरियां और बण्डल, मांग के अनुसार तैयार होती है। तब हमें अनेक स्थानों के लिए भेज दिया जाता है। इस यात्रा में भी हमारे साथ बेदर्दी का व्यवहार होता है। हमें उठाना, पटकना, इधर फेंकना, उधर फेंकना आदि हमें बहुत पीड़ा देते हैं। इस यात्रा में कभी-कभी हमें सड़ना और गलना भी पड़ता है। धूप, वर्षा, और सर्दी भी हमें परेशान करते हैं। पानी और नमी तो मेरे जीवन के दुश्मन हैं। मुझे गला देता है पानी। इसलिए मैं इससे बहुत डरती हैं। यह यात्रा अब पुस्तक-विक्रेता की दुकान तक मुझे पहुंचा । देती है। अब पुस्तक विक्रेता के पास मेरे इच्छुक व्यापारी लोग अर्थात् मुझे पढ़ने के इच्छुक लोग आते हैं। यहाँ पर मोल-तोल होता है। मेरी कीमत कम-ज्यादा की जाती है। इस समय मुझे कभी-कभी यह दु:ख भी होता है कि लोग बिना सोचे-समझे भी मेरी खरीददारी कर लेते हैं। अब मुझसे ज्ञान प्राप्त करने का क्रम आरम्भ होता है। अच्छे पाठक अच्छे विद्यार्थी औरअध्यापक मुझे बहुत प्यार करते हैं, सम्मान देते हैं। यदि मैं कभी नीचे गिर गई, पैरों में आ गई तो लोग मुझे झाड़कर माथे पर भी लगाते हैं। जब लोग ऐसा करते हैं तो मुझे प्रसन्नता होती है। जो लोग मुझे खूब पढ़ते हैं, जो विद्यार्थी मुझसे बहुत कुछ सीखते हैं उनके लिए मेरे मन में बहुत प्यार होता है और मैं उन्हें बहुत ज्ञान देती हूँ। यह सत्य है कि बिना मेरा अध्ययन किए ज्ञान-प्राप्ति नहीं हो सकती है। कुछ लोग मुझे अपने पुस्तकालयों में रख देते हैं और मेरा पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। मैं कई पीढ़ियों तक भी उनके पुस्तकालयों में रहती हैं। कुछ लोग मुझे पढ़कर रद्दी में बेच डालते हैं। फिर दुकानदार आदि मेरे पन्ने-पन्ने को फाड़कर मुझे कष्ट देते हैं। अच्छे लोगों के लिए मेरे मन में शुभ भावना होती है। जब विद्यार्थी मुझे फाड़ डालते हैं तो मुझे बहुत ही परेशानी होती है। इस प्रकार मेरी यह यात्रा मेरे पाठक के पास जाकर पूरी होती है। पर मुझे खरीद कर जो विद्यार्थी मुझे पढ़ते नहीं, मुझसे ज्ञान प्राप्त नहीं करते है, उनके पास जाकर तो मैं भी रोती हूं।
उपसंहार-मेरी यह कहानी एक देश में नहीं सभी देशों में इसी प्रकार है। मैं सभी देशों में हूं, सभी शहरों और गाँवों में हूं। जहाँ मैं नहीं हैं वहाँ विद्या का प्रकाश, ज्ञान का प्रकाश नही होता है। और अज्ञान का अंधकार छाया रहता है। कष्टों से भरा मेरा जीवन जब लोगों को ज्ञान देता है तो मैं अपने सारे दुःख भूल जाती हूँ। मैं सभ्य और संस्कृत लोगों का सदैव साथ देती हैं। पढ़े-लिखे लोग मेरा आदर करते हैं। मेरे जीवन का यही सबसे बड़ा उद्देश्य है कि सभी लोग मुझसे मित्रता करें, मुझ से लाभ उठाएँ, ज्ञानवान बनें। इससे सभी में सामाजिक भावना आएगी, दूषित विचार दूर होंगे, समाज में, विश्व में शान्ति और सुख होगा।
कागज़ के टुकड़े की यह कहानी सुनकर जब मैंने उसको पढ़ा तो वह हिन्दी साहित्य की किताब का था। मुझे दुःख हुआ कि लोग पुस्तकों का दुरुपयोग क्यों करते है ? कागज के उस पन्ने ने भी मुझे यही कहा कि मेरा उपयोग करो तो सदैव लाभ प्राप्त करोगे।
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