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Swami Vivekananda Essay in Hindi- स्वामी विवेकानंद पर निबंध
भूमिका- विश्व को ज्ञान-रश्मियों से आलोकमण्डित कर हमारा देश जगत् गुरु कहलाया। ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भारतीय मनीषियों ने निरन्तर साधना से विश्व को नए दर्शन पढ़ाए। अपने विश्व व्यापी चिंतन से हमारे महापुरुषों ने विश्व को धर्म की सीमित परिधियों से निकाल उसे विशाल क्षेत्र प्रदान किया। धर्म के कूप-मण्डूक बनकर रहना उन्हें स्वीकार न था। इसलिए विश्व के सम्मुख उन्होंने धर्म और दर्शन की नयी व्याख्या की जिसका आधार विशाल था और जिसमें द्वेष का मालिन्य नहीं था अपितु प्यास की सौरभ थी। स्वामी विवेकानन्द भी ऐसे ही युग-पुरुष हुए हैं जिनका चिंतन और दर्शन विश्व के एनि पथ से प्रशत करता है है एक अडित कली पर्वक व्याख्या में करता हैं।
जीवन दर्शन-12 जनवरी सन् 1883 ई. मकर संक्रान्ति के दिन कलकत्ता के एक क्षत्रिय परिवार में श्री विश्वनाथ दत्त के घर में उनकी पत्नी भुवनेश्वरी देवी की कोख से एक बालक का जन्म हुआ जिसका प्यार भरा नाम माँ ने ‘वीरेश्वर (बिले) रखा। लेकिन अन्नप्राशन
के दिन नाम दिया गया नरेन्दर नाथ। अनेक मनौतियों के बाद जन्मा बालक सम्पन परिवार में बहुत लाड़-प्यार से पाला गया और परिणामत: वह हट्ठी बन गया। बचपन से ही मेधावी नरेन्द्र जिज्ञासु भी था। अत: घर में भी माता-पिता पर प्रश्नों की बौछार करता। धार्मिक वातावरण में महादेव और हनुमान के चरित्रों से वह प्रभावित होता।
घर की आरम्भिक शिक्षा के बाद विद्यालय की शिक्षा आरम्भ हुई। दो वर्ष तक रायपुर में पिता के समीप रहने से बालक नरेन्द्र ने स्वास्थ्य लाभ भी किया और तर्क शक्ति का विकास भी हुआ। मैट्रोपौलिटन इन्स्टीट्यूट से मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद असेम्बली इन्स्टीट्यूशन से नरेन्द्र ने एफ. ए. और बी. ए. की परीक्षा उतीर्ण की।
इस अध्ययन काल में नरेन्द्र ने वकृत्व शक्ति, शारीरिक और मानसिक शक्ति, तर्क-बुद्धि चिंतन और मनन, ध्यान और उपासना, भारतीय और पाश्चात्य दर्शन, डार्बिन का विकासवाद और स्पेंसर का अज्ञेयवाद, ब्रहम समाज और परम हंस और काली आदि से जुड़कर उनका अध्ययन विकास की ओर अग्रसर हुआ।
सन् 1884 में पिता का निधन होने से परिवार के भरण-पोषण का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। ऋण की परेशानी, नौकरी की निरर्थक ढूँढ, मित्रों की विमुखता, ने नरेन्द्र के मन में ईश्वर के प्रति प्रचण्ड विद्रोह जगा दिया लेकिन रामकृष्ण परमहंस के प्रति उसकी श्रद्धा और विश्वास स्थिर रहे। परमहंस से उन्होंने नीविरलकल्प समाधि प्राप्त करने की प्राथना की लेकिन यह सब कुछ एक दिन स्वयं हो गया। एक दिन ध्यान में डूबे नरेन्द्र की समाधि लग गई और समाधि टूटने पर वह दिव्य आनन्द और शान्ति के प्रचण्ड प्रवाह से विभोर हो गया, पुलकित हो गया। अपनी मृत्यु से तीन-चार दिन पूर्व रामकृष्ण ने नरेन्द्र को अपने प्रभाव से आच्छन्न कर और स्वयं समाधिस्थ होकर कहा था-“आज मैंने तुम्हें अपना सब कुछ दे दिया है और अब मैं सर्वस्वहीन एक गरीब फकीर मात्र हूँ। इस शक्ति से तुम संसार का महान् कल्याण कर सकते हो और जब तक तुम वह सम्मान प्राप्त न कर लोगे, तब तक तुम न लौटोगे।” उसी क्षण से सारी शक्तियाँ नरेन्द्र के अन्दर संक्रान्त हो गई, गुरु और शिष्य एक हो गए तथा नरेन्द्र ने संन्यास ग्रहण कर लिया। अगस्त 1886 में परमहंस महासमाधि में लीन हो गए।
संन्यास की ओर- अभी तक नरेन्द्र घर से पूर्ण रूप से असम्पृक्त नहीं हुए थे। घर की व्यवस्था संतोषजनक नहीं थी। जब उनके मकान सम्बन्धी मुकद्दमे की अपील का निर्णय उनके पक्ष में हो गया तो दिसम्बर के आरम्भ में नरेन्द्र ने घर-परिवार से स्वयं को पूर्ण रूप से मुक्त कर दिया और वाराहनगर में रहने लगे। इसके बाद दैवी इच्छा से प्रेरित होकर नरेन्द्र ने मठ को त्यागने का फैसला कर लिया। युवक नोरेन्द्र परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द हो गए।
इसके बाद स्वामी विवेकानन्द की यात्रा आरम्भ हुई। बिहार, उत्तर प्रदेश, काशी, अयोध्या, हाथरस, ऋषिकेश, आदि तीर्थों में घूमने के पश्चात् वे पुन: वाराहनगर मठ में आ गए और रामकृष्ण संघ में सम्मिलित हो गए।
उनकी यात्रा निरंतर जारी रही और ज्ञानाजर्न की पिपासा भी उत्तरोत्तर बढ़ती गई। एक ओर उत्तरी भारत में उत्तरकाशी से लेकर दक्षिण भारत में कन्याकुमारी तक वे सम्पूर्ण राष्ट्र का जीवन देखते रहे समझते रहे तो दूसरी ओर उनकी आध्यात्मिक भी बढ़ती गई। इस सदर्भ में वे कभी पवहारी बाबा से उपदेश प्राप्त करते, उच्चतर आध्यात्मिक चर्चा करते तो ओर प्रेमानन्द जी से शास्त्र-चर्चा और शंका-समाधान भी किया करते। एक ओर वे अनेक नरेशों के सम्पर्क में आते तो दूसरी और माँ सारदा देवी जी का पुण्य आशीर्वाद भी मगिते। अष्टाध्यायी और पातंज़लि का गहन अध्ययन उनकी ज्ञानार्जन की बलवती भावना का प्रमाण है। लोकमान्य तिलक, स्वामीरामतीर्थ जैसे नेताओं और विद्वानों से उनका सामीप्य रहा। कन्याकुमारी में श्रीपादशिला पर समाधिस्थ होना और उसके विदेश प्रस्थान उनके इस भ्रमण के कुछ विशेष महत्वपूर्ण पहलू हैं।
31 मई 1893 ई. को उन्होंने बम्बई से प्रस्थान किया। इस यात्रा में जापान जैसे देशों को देखा जो औद्यागिक क्रांति से नवय रूप प्राप्त क्र रहा था। शिकागो शहर में गेरुआ वस्त्र धारी तेजस्वी गौर वर्ण व्यक्ति को देखकर उन लोगो के ध्यान को आकर्षित करते। शिकागो धर्म सभा में भाग लेने से पूर्व उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा लेकिन वे विचलित नहीं हुए। 11 सितम्बर 1893 का दिन विश्व के धार्मिक इतिहास के लिए चिरस्मरणीय है जब गैरिक वस्त्रों से विभूषित गौरवर्ण संन्यासी ने प्यार और अपनत्व की ऊर्जामयी भाषा में अमेरिका के लोगों को संबोधित किया था-अमेरिका निवासी भाइयों और बहनों-और वह कक्ष कारतल ध्वनि से गूंज उठा था। और इसके पश्चात सम्मेलन मानो विवेकानन्द के ही रंग में रंग गया। हिन्दु धर्म के अनेक पक्षों को जब उन्होंने सम्मुख रखा तो समस्त पत्र-पत्रिकाओं ने अपूर्व स्वागत इस दिव्य स्वामी का किया। न्यूयार्क हेराल्ड, प्रेस ऑफ अमेरिका ने स्पष्ट लिखा कि इस चुम्बकीय व्यक्तित्व वाणी और विषय के प्रतिनिधि के सम्मुख अन्य धर्मों के प्रतिनिधि निस्तेज हैं। इसके बाद स्वामी जी ने अमेरिका के विभिन्न शहरों में व्याखान दिए। इंग्लैंड आने पर यहाँ भी उनके प्रवचनों ने अनेक विद्धान जनों, धर्म प्रेमियों को लुभाया। जगद् विख्यात विद्वान मैक्समूलर उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। जर्मनी के अलावा वे अन्य देशों में वेदान्त प्रचार के पश्चात वे भारत लौटे। चार वर्ष पश्चात् अपनी मातृभूमि में वापस आने पर उनका अभूतपूर्व, भव्य, गौरवमय और प्यार भरा स्वागत किया गया। सम्पूर्ण देश में विवेकानन्द का नाम गूंज उठा। देश और विदेश में अनेक धर्मों के लोग उनके शिष्य बने। रामकृष्ण मिशन की स्थापना के बाद यह महान् विभूति 4 जुलाई 1902 को ओम् की ध्वनि के साथ महाप्रस्थान कर गई।
दर्शन और सिद्धान्त- स्वामी विवेकानन्द का उद्देश्य रामकृष्ण परमहंस के धर्म तत्त्व को विश्वव्यापी बनाना था जिसका आधार वेदान्त था। अत: उन्होंने वेदों के प्रचार और प्रसार के लिए महासंकल्प किया। देश और विदेश में रामकृष्ण मिशन की शाखाएं और प्रचार केन्द्र स्थापित किए। अपने साथियों से उन्होंने एक बार कहा था-‘जो लोग दिखावटी भावावेश के धर्म को प्रोत्साहन देते हैं उनमें से अस्सी फीसदी बदमाश और पन्द्रह फीसदी पागल हो जाते हैं।” उनका संन्यास जीवन से दूर नहीं भागता था अपितु संसार के दु:ख दारिद्रय को दूर करना तपस्या के समान मानता था। केवल अपनी मुक्ति के लिए तपस्या करना उन्हें स्वार्थ प्रतीत होता था।
वे धर्म के ढोंग-ढकोसला के दलदल से बाहर निकलना चाहते थे। उनका स्पष्ट मत था कि धर्म का व्यवसाय करने वाले पण्डित-पुरोहित ही धर्म के मूल तत्वों को नहीं समझते हैं और भारत की धर्म निष्ठा जनता को गुमराह करते हैं।
वे पत्थर हृदय-संन्यासी नहीं संवेदनशील परदु:खकातर योगी थे। अपने गुरु भाई की मृत्यु पर अब वे शोक-विह्वल हुए और प्रमदा दास ने उनके साधारण व्यक्तियों जैसे शोक पर आशचर्य प्रकट किया तो उन्होंने कहा था – क्यों संयासी हृदयहीन होते है। मेरे विचार में तो संन्यासी का हृदय अधिक सहानुभूतिशील होता है। पत्थर जैसा अनुभूतिशून्य संन्यासी जीवन तो मेरा आदर्श नहीं है।
वेदान्त के विभिन्न मतों के संबंध में उनका निश्चित मत था कि विभिन्न मतवाद परस्पर विरोधी नहीं है अपितु एक दूसरे के पूरक और समर्थक हैं। उनके इस समन्वयवादी विचार ने सभी धर्मों के श्रेष्ठ तत्वों को स्वीकारा किया। अत: वे सबके प्रिय बने।
वे समाज को देश को प्रतिगामी रुढ़ियों से निकाल कर प्रगतिशील बनाना चाहते थे। जो नियम और आचार-विचार समाज के विकास और पोषण में बाधक थे उनके त्याग को ही वे स्वीकारते थे। उन्होंने धर्म-द्वन्द्र के त्याग, स्वाधीनता के नाम पर स्वेच्छाचारिता के परित्याग, जातीयता और राष्ट्रीयता के नाम पर दूसरे पर अत्याचार, धर्म के नाम पर दूसरों के धर्म को हेय मानने का निषेध तथा उच्च और उदार मानव धर्म की स्थापना पर बल दिया।
सर्वधर्म समन्वय का उपदेश देते हुए उन्होने कहा था-प्रत्येक जाति और प्रत्येक धर्म दूसरी जाति और धर्मों के साथ आदान प्रदान करेगा, कुछ लेगा और कुछ देगा। किन्तु प्रत्येक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करेगा और अपनी अपनी अन्तर्निहित शक्ति के अनुसार आगे बढ़ेगा। उनका आदर्श था-“युद्ध नहीं सहयोग, ध्वज नहीं एकात्मता, भेद नहीं सामंजस्य।”
उपसंहार- यह दिग्विजयी संन्यासी, मानवता का उपासक और प्रेमी ज्ञान का प्रकाश । पुंज, दिव्य शान्तियों के आलोक से विभूषित ब्रह्मचारी केवल 39 वर्ष की अल्पायु में ब्रहमलोक की ओर महाप्रयाण कर गया। मां भारती के इस पुत्र को देशवासियों ने इसकी इस विशाल । प्रतिमा ‘परिवाजक की प्रतिमा’ स्थापित कर अपने श्रद्धा सुमन और भावाजलियां इसके चरणों में निवेदित की।
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