बैसाखी पर निबंध- Essay on Baisakhi in Hindi

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बैसाखी पर निबंध- Essay on Baisakhi in Hindi

वह राष्ट्र ही सप्राण और सशक्त होता है जो समय-समय पर अपने उत्सव और पर्व मनाता रहता है। एक उत्सव या पर्व मनाने से हज़ारों वर्ष पुराना इतिहास मूर्तिमान हो उठता है। बच्चे, बूढ़े जवान एवं नारी वर्ग उस उत्सव से वर्ष भर कुछ न कुछ प्रेरणा पाता रहता है। वैशाखी भी भारत के ऐसे ही पर्यों में से एक है।

जिसने मरना सीख लिया है,

जीने का अधिकार उसी को।

जो काँटों के पथ पर आया,

फूलों का उपहार उसी को।

किसी भी राष्ट्र का महत्त्व आंकना हो तो उसके सांस्कृतिक जीवन द्वारा आंका जा सकता है। जिस वृक्ष की जड़े जितनी ज्यादा मज़बूत होंगी वह वृक्ष उतना ही मज़बूत होगा। इस तरह जिस राष्ट्र की संस्कृति जितनी पुरानी और दृढ़ होगी वह राष्ट्र भी उतना सबल होगा। तात्पर्य यह कि राष्ट्र का अपनी संस्कृति से गहरा सम्बन्ध होता है। संस्कृति के दो रूप होते हैं : बाह्य रूप और अन्तः रूप। बाह्य रूप का परिज्ञान उसके उत्सवों और पर्यों से होता है।

भारतवर्ष उत्सवों और पर्वो का देश है। इसके पूरे वर्ष में एक नहीं अनेक उत्सव या पर्व मनाए जाते हैं। सिक्खों के गुरुपर्व, हिन्दुओं के रक्षा बन्धन, होली, विजय दशमी, दीवाली, मुसलमानों की ईद, ईसाइयों का क्रिसमस का दिन इस तरह एक नहीं अनेक पर्व हैं जो भारतवर्ष में मनाए जाते हैं और यह सभी पर्व सभी सम्प्रदाय मिलकर मनाते हैं। इसलिए हम अनेक होते हुए भी एक हैं। इन उत्सवों, पर्यों में खुशियों और उमंगों भरा वैशाखी का पर्व है।

वैशाखी : अनेक दृष्टिकोण- वैशाखी का धर्म-भावना से गहरा सम्बन्ध है। सूर्य 12 राशियों की परिक्रमा करके इस दिन पुनः मेष राशि में आता है। इससे यह समझा जाता है कि पुराना वर्ष मंगलमय बीत गया और नव वर्ष का आगमन भी मंगलमय हो। इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के घर जा कर स्वस्ति वाचन करते हैं। नवग्रह पूजन करते हैं और यजमान को यज्ञोपवीत देते हैं। यजमान भी यथाशक्ति अपने पुरोहित ब्राह्मण को सन्तुष्ट करता है। बहुत श्रद्धालु लोग तीर्थों में जाकर स्नान करते हैं। अगर किसी से ये न बन पड़े तो वह गंगाजल डाल कर स्नान करता है। इस तरह वैशाखी का पर्व धार्मिक लोगों के लिए पुण्य । का पर्व है।

वैशाखी एक ऐसा पर्व है जिसे उत्तर भारत और दक्षिण भारत के सभी लोग हर्ष और उल्लास से मनाते हैं क्योंकि उन सब का विचार है कि वैशाखी से वर्ष का आरम्भ होता है। इस दिन यदि खुश रहा जाए, मंगल के काम किए जाएं तो सारा वर्ष अच्छा बीतेगा। यही कारण है कि वैशाखी का पर्व एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक उल्लास और रंगीन कार्यक्रम से मनाया जाता है। यही नहीं, बहुत से लोग अपना काम वैशाखी के दिन शुरू करते हैं। इस तरह वैशाखी का धार्मिक ही नहीं सामाजिक महत्त्व भी है।

पंजाब के जनजीवन का वैशाखी से गहरा सम्बन्ध है। सिक्खों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी ने वैशाखी के दिन अपने शिष्यों की भरी हुई सभा में कहा कि कोई हैं जो धर्म पर बलिदान देना चाहता हो।’ आज मेरी तलवार खून की प्यासी है। गुरु महाराज जी ने तीन बार यह वाक्य कहा, शिष्यों में सन्नाटा छा गया। आखिर एक शिष्य उठा, गुरु जी । उसे खेमे में ले गए और खून से भरी हुई तलवार लेकर पुनः मण्डप में आ गए। इस तरह गुरु जी ने पांच बार पुकार लगाई तब से पांच प्यारे सिक्खों में प्रसिद्ध हुए। जब हम वैशाखी का पर्व मनाते हैं तो हमारे सामने गुरु जी के वे विचार घूमते हैं कि सब एक हो जाओ, जात-पांत का बखेड़ा छोड़ दो। जैसे कि इन पांच प्यारों ने अपनी जाति को छोड़ दिया।

पंजाब निवासी, जिसे देश से ज़रा भी प्यार होगा, वह 1919 की उस खून भरी वैशाखी को भूल नहीं सकता। इस दिन अनेक माताओं की गोद सूनी हुई। अनेक पत्नियों के सिन्दूर पोंछे गए। अनेक बहिनों और बेटियों के भाई और पिता बिछुड़े। इस तरह पंजाब इस खूनी वैशाखी को कैसे भूला सकता है।

सन् 1919 में रोलेट एक्ट का विरोध करने के लिए वैशाखी के दिन जलियांवाला बाग अमृतसर में अपार जनसमूह एकत्रित हुआ। बहुत शांत और बहुत ही अच्छे विचारों में बैठा हुआ। उनके पास कोई हथियार नहीं थे। वह तो केवल अपने नेताओं का भाषण सुन रहे थे। तभी जनरल डायर ने गोलियों की वर्षा कर दी। आज भी बाग में गोलियों के निशान मिलते हैं। जिस कुए में स्त्री-पुरुष भागते हुए गिरे वह कुआं भी विद्यमान है। इस तरह पंजाब के लोग इस रोमांचकारी वैशाखी को कभी भुला नहीं सकते। इस वैशाखी के दिन लगभग 2000 व्यक्ति शहीद हुए थे। ऐसी स्थिति में वैशाखी कैसे भुलाई जा सकती है ?

प्रकृति और वैशाखी- प्रकृति से भी वैशाखी का गहरा सम्बन्ध है। वैशाखी के दिन सर्दी समाप्त होती हैं और बसन्त ऋतु आती है। वृक्षों के झड़े हुए पत्ते अपनी नई शोभा दिखाते हैं अर्थात् वृक्षों में नई कोमल पत्तियां आ जाती हैं, फूल महकते हैं, घूमने का आनन्द आता है, ठण्डी-ठण्डी हवा मन को मोहित करती है क्योंकि सर्दियों में अति शीत और गर्मियों में अति ग्रीष्म के कारण लोग घूम नहीं पाते। वैशाख के महीने में नए जोड़े सज-धज के निकलते हैं। इस महीने में बागों की शोभा कुछ और ही हो जाती है। इस तरह हम देखते हैं कि वैशाखी का सम्बन्ध प्रकृति से भी बहुत है। प्रकृति इस समय प्रफुल्लित होती है। इसलिए लोगों के मन भी इस दिन प्रफुल्लित होते हैं।

वैशाखी का ग्राम्य जीवन से भी गहरा सम्बन्ध है। पौष, माघ की ठिठुरती हुई रातों में जब किसान अपनी फसल की रक्षा करता है और प्रकृति का प्रकोप भी उस वर्ष न हो तो गांव का किसान अपनी लहराती हुई फसल को देख कर झूम-झूम उठता है वह अपने सब कष्ट भूल जाता है। किसान की स्त्री जब खेतों में घूमती है तो उसके पैरों की पाजेब अपने आप सुर-ताल देने लगती है दोनों मिल कर गीत गुनगुनाने लगते हैं। इस तरह से ग्राम्य-जीवन के साथ वैशाखी का गहरा सम्बन्ध है।

पंजाब और वैशाखी का मेला- वैसे तो और प्रान्तों में भी वैशाखी का मेला मनाया जाता है परन्तु पंजाब के वैशाखी के मेले का रंग ही अनोखा है। वैशाखी से तीन दिन पहले ही भंगड़ा डाला जाता है और तरह-तरह की पंजाब की बोलियां गाई जाती हैं। जैसे

बारी-बरसी खटन गया सी खट-खट के लयान्दे पावे,

हुस्न पंजाबन दो चन्न नू पया शरमावे।

बारी-बरसी खटन गया सी खट-खट के लयान्दी धेली,

माही मेरा फुले वरगा मैं चनन दी बेली।

इस तरह से अनेक प्रकार की बोलियां और टप्पे गाए जाते हैं। पंजाब में करतारपुर का वैशाखी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। इस दिन जाट बड़ी-सी डांग पकड़ता है, सफेद कपड़े पहनता है और बकरा बुलाता हुआ घर से बाहर निकलता है। कभी-कभी वैशाखी के मेले में लड़ाई भी हो जाती है। यह उचित नहीं है। इस से धन और समय का अपव्यय तो होता ही है और भी कई तरह के कष्ट सामने आते हैं। किसानों को चाहिए कि इस दिन न लड़े। मेले का अर्थ लड़ाई नहीं, मेल होता है अर्थात् आपस में दो विरोधी गले मिलें तो मेला है। न कि लड़े-झगड़े। जो कुछ भी हो वैशाखी के मेले का आनन्द अपना ही है। एक कवि की कविता द्वारा इस आनन्द को मूर्तिमान किया जाता है।

तूड़ी तंद सांभ, हाड़ी बेच बट के,

लम्बड़ा ते शाहां दा हिसाब कट के।

मीहां दी उडीक ते सिआड़ कड के,

माला ढांडा सांभने नू चूड़ा छड के।

पग झगा चादरा नवें सीवा के,

सम्मां वाली डांग ते तेल ला के।

कच्छे मार बंझली अनन्द छा गया,

मारदा दमामे जट मेले आ गया।

कविता के इस अंश से स्पष्ट हो गया कि पंजाब का नवयुवक विशेष रूप से ग्रामीण नवयुवक वैशाखी का मेला बहुत उल्लास से मनाता है। कुछ भी हो हिन्दू मन्दिरों में, सिक्ख गुरुद्वारों में जाकर प्रार्थना करते हैं कि हमारा नव वर्ष मंगलमय हो।

बड़े दुःख से लिखना पड़ता है कि राष्ट्र के पर्व और उत्सव आज उतने उत्साह से नहीं मनाए जाते जितने कि पहले समय में मनाए जाते थे। इसके कई कारण हो सकते हैं। कुछ तो कमर-तोड़ मंहगाई है। कुछ लोगों की बुद्धि नास्तिकता की ओर झुक रही है। लोग इन उत्सवों और पर्यों का महत्त्व ही नहीं समझते। यही कारण है कि मिलकर नहीं बैठते और विरोध बढ़ता रहता है। यदि देश और उसकी संस्कृति को सजीव रखना है तो उत्सव और पर्व अवश्य मनाने चाहिएं। इन उत्सवों में वैशाखी एक महत्त्वपूर्ण उत्सव है। जिसका महत्त्व प्रत्येक दृष्टि से है।

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