भारतीय समाज में नारी का स्थान पर निबंध- Essay on Women in Indian society in Hindi

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भारतीय समाज में नारी का स्थान पर निबंध- Essay on Women in Indian society in Hindi

भूमिका-विधाता ने इस सतरंगी सृष्टि की रचना की है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत, गम्भीर सागर, लहलहाते खेत, विशाल गगन, फुदकते हुए जीव-जन्तु चहकते पक्षी, खिलते हुए पुष्प रस पान करते हुए अमर इन सबका स्रष्टा ईश्वर ही है।

आदि-पुरुष जब सृष्टि में आया होगा तो उसने इन सभी प्रकृति के दृश्यों और जीवों को निहारा होगा लेकिन उसे कोई साथी न मिला होगा। अत: उसने विधाता के दरबार में प्रस्तुत होकर करबद्ध प्रार्थना की कि एक सहानुभूतिपूर्ण साथी दिया जाए। विधाता ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए पुष्पों की कोमलता, मृगों से चंचलता, धरती से क्षमाशीलता, गगन से विशालता, पर्वत से उच्चता, चन्द्रमा से शीतलता, सूर्य से तेज, सागर से गम्भीरता एवं मर्यादा पालन, गाय से वत्सलता, वृक्षों से सहनशीलता, इत्यादि गुण लेकर प्रकृति नटी की। सृजना की होगी।

इस चपला मुग्धा ने आते ही प्रणाम किया आदि-पुरुष को। पुरुष ने उसे बढ़ कर गले । लगाया। दोनों ने एक साथ रह कर जीवन निभाने का प्रण किया। नारी को चिर-सहायक मिल गया, पुरुष को अभिलाषित साथी। यही नारी नर सृष्टि के विकास में सहायक हुए।

नारी तेरे अनेक रूप है ! तू मेनका बनती है तो दुष्यन्त के लिए शकुन्तला, शिवजी के लिए पार्वती, राम के लिए सीता, कहीं तु रमणी है, कहीं सिंहनी, कहीं विलासिता की प्रतिमा, कहीं त्याग की प्रतिमूर्ति। एक तू है, अनेक तेरे रूप है।

प्राचीन समाज में नारी-इतिहास एवं साहित्य के पृष्ठों पर दृष्टिपात करने से यह पता चलता है कि नारी को वैदिक युग में अति सम्मान प्राप्त था। तभी तो कहा जाता था-

“यत्र नार्यास्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवताः’ अर्थात् जहां नारियों का सम्मान होता है वहीं देवाताओं का वास होता है। वैदिक युग में नारी आधुनिक युग की भांति जीवन के प्रांगण में स्वतन्त्र थी। उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र थी, यज्ञों में भाग लेती थी। सहशिक्षा का भी प्रचार था। कोई उस समय तक पराजित नहीं समझा जाता था जब तक उसकी अर्धांगिनी पराजित न हो जाती इस युग में नारी उन्नति के उत्तुंग शिखर पर थी।

समय ने करवट बदली और सामाजिक रंगमंच परिवर्तित हुआ। साहित्य ने उसकी झांकी प्रस्तुत की। महाभारत युग में नारी की स्थिति बदली। रामायण में बहु-विवाह प्रथा चल पड़ी।

रावण जैसे अत्याचारी स्त्री का शील भंग करने की चेष्टा कर रहे थे, और स्त्री को अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ती थीं।

महाभारत युग में भी नारी का पतन हो गया। दुर्योधन जैसे व्यक्ति नारी को भरी सभा में नग्न करने लगे। युधिष्ठिर जैसे व्यक्ति नारी को जुए के दांव पर लगाने लगे। एक पत्नी के अनेक पति होने लगे। इस प्रकार नारी का आदर कम होने लगा।

साहित्य में नारी-चित्रण-हिन्दी साहित्य का इतिहास वीरगाथाकाल से आरम्भ होता है। इस युग का साहित्य नारी का स्थान बताता है। नारी इस युग में येन केन प्रकारेण अपना गौरव बनाये हुए थी। इधर विवाह होता उधर वह अपने पति की आरती उतार कर उसे युद्ध-भूमि में भेज देती। माताएं अपने बेटे को, बहिनें अपनी भाइयों को, पलियां अपने पतियों को युद्ध-भूमि में भेजने के लिए उत्सुक रहती थीं। इस युग में जितने भी युद्ध होते थे, उनका कारण नारी ही होती थी।

“जिही की बिटिया सुन्दर देखी

तिहि पर जाए घरे हथियार”

भक्तिकाल हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल कहलाता है परन्तु यह नारी का पतनकाल था। कबीर जैसे समाज सुधारक ने नारी की निन्दा की है, इसलिए उन्होंने लिखा है :-

“नारी तो हम भी करि, पायी नहीं विचार,

जब जांनि तब परिहरि नारी बड़ा विकार”

कबीर ने नारी की भरसक निन्दा की है और उसे ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधा माना है क्योंकि कंचन और कामिनी ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधा डालते हैं। नारी को माया के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है।

तुलसीदास ने मर्यादा पुरषोत्तम राम का तो वर्णन किया साथ ही नारी का भी रूप प्रस्तुत किया। इन्होंने नारी के दो रूप प्रस्तुत किये हैं, एक तो जगदम्बा सीता का, जिसके खो जाने पर वह राम भी रो पड़े जो राजगद्दी से उतारे जाने पर शंकित नहीं हुए थे, जिन्होंने राजगद्दी को भरत के आगमन पर गेंद बना कर ठोकर लगाई थी। दूसरी ओर इसी तुलसीदास ने यह भी लिखा है :-

“ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ।

ये सब ताड़न के अधिकारी”

इसकी इस उक्ति को देख कर ताराचन्द ने इन्हें ‘कंज़र्वेटिव कहा है परन्तु तुलसीदास ने नारी के प्रति सम्मान भी व्यक्त किया है।

‘कत रचि विधि नारी जग माही

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ।

भक्तिकाल में सूरदास ने राधा के रूप में नारी का स्वरूप प्रस्तुत किया और जायसी ने नागमति, पद्मावती का साहित्यिक एवं सामाजिक स्वरूप प्रस्तुत किया। इन्होंने इसे अपने भिन्न दृष्टिकोण, से देखा।

रीतिकाल को यदि श्रृंगारकाल कह दें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस युग में नारी का विलासितामय चित्रण ही किया गया, वह न तो मां रही, न बहिन न बेटी, अपितु बन गई एक रमणी एवं मुग्धा नायिका।

कवियों ने उसके नखशिख का चित्रण अश्लीलतापूर्ण किया। यहां राधा भक्ति काल की राधा न रहकर साधारण रमणी बन गई और वह समाज में कोई भी सम्मान प्राप्त न कर सकी। अकबर जैसे व्यक्ति भी इस युग में मीना बाजार लगाते थे और वह स्त्रियों का नारीत्व भंग किया करते थे। उस युग में छोटी आयु का विवाह प्रचलित हो गया, पर्दा-प्रथा, चूंघट, सती-प्रथा सभी कुरीतियाँ इसी युग में पनपीं, यहां तक कि राजपूतों ने बेटी को जन्म देते ही वध करना आरम्भ कर दिया। पुरुष ने अपनी कायरता को छिपाने के लिए नारी को चारदीवारी, में बन्द कर दिया। वह पांवों की जूती समझी जाने लगी। उसे शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया गया। वह घर की शोभा कहलाने लगी। वह पतन के गर्त में गिर गई। हां, लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना भी इतिहास में हुई हैं।

आधुनिक युग में हमारे कवियों ने नारी को स्वतन्त्र करवाने का प्रयत्न किया। गुप्त ने उसके आंसू देखे और पुकार उठा

“अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी

आंचल में दूध और आंखों में पानी”।

इतना ही नहीं, पन्त भी नारी की परतन्त्रता पर आंसू बहाने लगे और उन्हें उसकी परतन्त्रता अखरने लगी, इसलिए वह पुरुष समाज को आह्वान करने लगे

‘मुक्त करो नारी को मानव, चिरवन्दिनी नारी को,

युग-युग की बर्बर कारा में जननी सखी प्यारी को।”

वर्तमान युग में नारी-पश्चिम जागा, पूर्व जागा, नारी ने करवट ली और उसने शिक्षा के क्षेत्र में हाथ-पांव मारने आरम्भ कर दिये। अन्त में उसे शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला। वैवाहिक क्षेत्र में उसका गौण स्थान समाप्त हुआ और उसे सम्मान से जी का अधिकार मिलने लगा। आधुनिक युग में यह उन्नति की ओर अग्रसर होने लगी।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् उसने हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रयत्न किया और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समाज में, प्रगति की ओर उन्मुख हुई। शिक्षा प्राप्त कर उसने अपनी स्थिति को देखा और अपने अधिकारों को पह, ।। महर्षि दयानन्द सरस्वती स्वामी विवेकानन्द, राजा राम मोहन राय आदि समाज सुधारकों के पुनीत कार्यों के द्वारा वह गुलामी की जंजीरों । और रुढ़ियों से मुक्त हो गई।

शताब्दियों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ी नारी ने आज अपने ऊपर लगाए जाने वाले बंधनों का प्रतिरोध तो करना ही था। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया भी है। परन्तु सभ्यता के इस संक्रमणकाल में वह अपने अधिकारों की पहचान करे यह तो प्रशंसनीय है लेकिन यदि वह नारीत्व और मातृत्व को खो देती हैं तो यह निश्चय ही श्रेष्ठ और लाभदायक नहीं। होगा। फैशन के नाम पर और सभ्यता के नाम पर शरीर का प्रदर्शन, क्लबों में शराब पीना, प्रेम के नाम पर तलाक, शरीर के सौन्दर्य की रक्षा के बहाने अपने ही बच्चे को दूध न । पिलाना जैसे तथ्य उसे निश्चय ही विनाशकारी मार्ग की ओर ले जाते हैं। इसलिए अपनी स्वतंत्रता का उपयोग उसे निर्माणात्मक और सृजनात्मक रूप में करना ही उचित है।

आधुनिक नारी को वैसे तलाक का अधिकार मिल गया है, बाप की जायदाद में अधिकार मिल गया। मतदान का हक मिला है। ये सब अधिकार उसे सबल बना रहे हैं। नारी अपने नारीत्व को खो कर नारी नहीं रहती है इसीलिए कवि पन्त कहते हैं :-

आधुनिके ! तुम सब कुछ हो पर नहीं हो नारी।

उपसंहार-ममतामयी माँ तथा सहयोग देने वाली पत्नी के रूप में नारी सदैव पुरुष के लिए परम मित्र के रूप में सहायक सिद्ध होती रही है। यद्यपि इतिहास के उत्थान और पतन के साथ उसकी सामाजिक स्थिति में भी परिवर्तन हुआ है तथापि उसकी प्रवृत्ति के जो शाश्वत तत्त्व है, जिनके कारण वह नारी कही जाती है उसके दया और ममतामयी रूप हैं। अतः नारी को समाज में सम्मान देना हमारा नैतिक कर्तव्य है। गुरु नानक तथा महर्षि दयानन्द ने नारी को निश्चय ही समाज में श्रेष्ठ स्थान प्रदान किया है, जब तक समाज में नारी को सम्मान जनक स्थान नहीं मिलेगा वह पुरुष की बर्बरता का शिकार होती ही रहेगी।

Essay on Kalpana Chawla

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