बृहस्पतिवार व्रत कथा, विधि- Brihaspati Vrat Katha | Vidhi

इस पोस्ट में हम अपने दर्शकों को बृहस्पतिवार व्रत की पूरी जानकारी दे रहे है जैसे की- बृहस्पतिवार व्रत की कथा, विधि, नियम और लाभ। Providing information about Thursday Fast Katha | Brihaspati Vrat Katha, Vidhi, Rules and Benefits, How to do Brihaspati Vrat Katha, Thursday Dast Vidhi in Hindi.

बृहस्पतिवार व्रत कथा, विधि- Brihaspati Vrat Katha | Vidhi

बृहस्पतिवार व्रत उद्यापन विधि – Brihaspativar Vrat Katha Vidhi

बृहस्पति देवता का व्रत इस दिन रखा जाता है। दिन में केवल एक ही बार भोजन किया जाता है। इस दिन पीले वस्त्र धारण करके शंकर भगवान पर पीले उर्द और चने की दाल चढ़ानी चाहिए और बृहस्पति की कथा सुनकर भोजन करना चाहिए।

Brihaspati Vrat Katha Rules- बृहस्पतिवार व्रत व्रत नियम

इस दिन पीली गाय के घी से बनाए गऐ पदार्थों से ब्राह्मण भोजन करना चाहिए। इस दिन पुरुष को बाल दाढ़ी नहीं बनवाना चाहिए।

स्त्रियों को बिना सिर भिगोये स्नान करके कदली वृक्ष की पूजा करनी चाहिए। क्षत्रियों में गहरवार तथा चन्देले इस दिन कोई शुभ यात्रा नहीं करते । गुरु भृस्पति की कहानी सुनकर दानादि देना चाहिए।

Brihaspati Vrat Katha in Hindi- बृहस्पति व्रत कथा

1 Thursday fast Katha 

एक नगर में एक साहूकार रहता था उसके पास धन-धान्य, बाल गोपाल की कोई ३ कमी न थी। लेकिन साहूकारनी कंजूस थी। वह कभी किसी भिखारी को भीख नहीं देती थी उसकी इस हरकत से सभी परेशान थे।

एक बार ऐसा संयोग हुआ कि एक पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष उस साहूकारनी के यहां भिक्षा मांगने पहुँचे। उस समय वह साहूकारनी अपना आँगन लीप रही थी, अतः सिद्ध महाराज से कहने लगी, महात्मा इस समय तो मैं काम कर रही हूं। मुझे अवकाश नहीं है। आप फिर दर्शन दीजिएगा। साधु बाबा दुआ देते हुए चले गये।

कुछ दिनों बाद वे पुनः पधारे-उस समय साहूकारनी अपने पोते को खिला रही थी। अतः उसने भिक्षा देने में फिर असमर्थता दिखाकर, साधु बाबा को फिर कभी अवकाश के समय आने को कहा। इस बार भिक्षुक का माथा ठनका। उसे साहूकारनी उस समय भी घर के किसी काम में अपने को व्यस्त रखने की कोशिश कर रही थी।

साधु बाबा चिढ़ गये। उन्होंने साहूकारनी से कहा कि मैं तुम्हें कुछ उपाय बताता हूँ। यदि तुम अवकाश ही अवकाश चाहती हो तो बृहस्पति को देर से उठा करो, सारे घर में झाडू लगाकर कुड़ा एक ओर इकट्ठा करके रख दिया करो, उस दिन घर में चौका न लगाया करो। स्नानादि करने वाले इस दिन हजामत अवश्य बनवाया करें, भोजन बनाकर चल्हे के पीछे रख दिया करो, शाम को काफी अन्धेरा छा जाने के बाद दीपक बत्ती जलाया करो तथा इस दिन भूलकर भी न तो पीले वस्त्र धारण किया करो और न ही कोई पीली चीज खाया करो।

साधु के चले जाने के बाद साहकारनी वैसा ही करने लगी धीरे-धीरे बृहस्पति की उपेक्षा के अशुभ परिणाम उसके घर में उजागर होने लगे। इसके एक सप्ताह बाद | वही साधु बाबा भिक्षा के लिए पुनः पधारे। उस समय साहूकारनी हाथ पर हाथ धर खाली बैठी थी। बाबा से भिक्षा माँगी तो वह फूट-फूटकर रोती हुई कहने लगी,  महात्मा! मैं आपको भिक्षा कहां से दें अब तो घर दर्शन करने के लिए भी अन्न के दाने नहीं है। साधु बाबा बोले, माई! तेरी माया समझ में नहीं आती। पहले तो तेरे घर में सब कुछ था, मगर फिर भी तू भिक्षक को भीख नहीं देती थी, क्योंकि उन दिनों घर के काम धन्धों से तुझे फुर्सत नहीं थी और अब तो फुर्सत ही फुर्सत है। फिर भी तू दान देने में आनाकानी करती है।

अब तो साहूकारनी को समझते देर न लगी कि सामने खड़े बाबा सर्वज्ञ और सिद्ध पुरुष हैं। उसने उनके चरण पकड़कर पिछले व्यवहार के लिए क्षमा माँगी और वायदा किया कि यदि आपकी कृपा से घर फिर धन धान्य से भरपूर हो गया तो वह कभी किसी भिक्षुक को खाली हाथ नहीं जाने देगी। साधू बाबा को दया आ गई। वे बोले-बृहस्पतिवार को तड़के ही उठकर स्नानादि मैं निवृत्त होकर अपने घर का कोई आदमी हजामत न बनाये और उस दिन विशेष रूप से भूखों को भोजन कराना चाहिए। यदि तुम ऐसा करोगी तो जल्दी ही तुम्हारे दिन फिर जायेंगे और तुम्हारा घर एक बार फिर धन धान्य से भरपूर हो जायेगा।

साहूकारनी ने वैसा ही किया। कुछ दिनों में उसके भले दिन फिर लौट आये। जैसे दिन बहस्पति जी ने उसके फेरे, ऐसे ही वह हम सबके शुभ दिन शीघ्र ही लायें।

2. बृहस्पतिवार | गुरुवार दूसरी व्रत कथा- Thursday Vrat Katha in Hindi

काफी पुरानी बात है। एक दिन देवाधिदेव इन्द्रदेव अपने सोने से जड़े सिंहासन पर विराजमान थे। अनेकानेक देव, किन्नर ऋषि आदि उनके दरबार में उपस्थित होकर उनकी स्तुतियों का गान कर रहे थे। आत्म प्रशंसा सुनते-सुनते इन्द्र को गर्व हो गया, वे अपने को सर्वशक्तिमान समझने लगे। ठीक इसी अवसर पर देव गुरू बृहस्पति जी दरबार में पधारे। इन्द्र दरबार के सभी सभापद देव गुरु की अभ्यर्थना में सादर उठकर खड़े हो गये। मगर अभिमान के मध में इन्द्र अपने सिंहासन पर ही जमा रहा।

बृहस्पति देवता को इन्द्र का गर्व समझते देर नहीं लगी। इन्द्र की इस अवज्ञा को उन्होंने अपमान समझा और वे क्रोधित होकर वहां से लौट आए।

बृहस्पति देवता के लौटते ही इन्द्र को अपनी गलती का अहसास हो गया वह अपने किये गर्व पर पछताने लगा। उसने उसी क्षण गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होकर क्षमा मांगने का निश्चय किया। बृहस्पति देव अपने तपोबल से इन्द्र के इरादे को जानकर अपने लोक से दूसरे लोक को चले गए। इन्द्र उनके लोक से निराश होकर लौट आया।

उन दिनों इन्द्र का शत्रु वृषपर्वा था। जब उसे देवगुरु की रूष्टता का ज्ञान हुआ तो उसने देवलोक पर चढ़ाई करने का सही अवसर जानकर दैत्य गुरु शुक्राचार्य से परामर्श किया। उन्हें वृषपर्वा की बात जंच गई। शुक्राचार्य की आज्ञा और वृषपर्वा के नेतृत्व में दैत्य सेना ने इन्द्रलोक को घेर कर ऐसी मार लगाई कि इन्द्र देव को छठी का दूध याद आ गया। हारकर वे सिर पर पैर रखकर ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने इन्द्र को त्वष्टा के पुत्र विश्वरूपा की शरण में जाने को कहा।

विश्वरूपा अपने समय का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी विज्ञानी ब्राह्मण था। इन्द्र ने जब अनेक प्रकार से विश्वरूपा की वन्दना की तो वे बड़ी कठिनाई से देवराज के पुरोहित बनने को तैयार हुए। विश्वरूपा ने, पिता की आज्ञा प्राप्त कर, देवराज का आचार्यात्व स्वीकार कर ऐसा यत्न किया कि देवराज को विजय प्राप्त हुई। वे पुनः आसन पर विराजमान हुए।

विश्वरूपा के तीन मुख थे। प्रथम से वे सोमवल्ली लता के रस का पान करते थे, दूसरे मुख से मदिरा पीते थे और तीसरे मुख से अन्न जल ग्रहण करते थे। विजयी देवराज ने विश्वरूपा के आचार्यत्व में यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की तो वे देवराज को यज्ञ कराने लगे। यज्ञ के दौरान अनेक दैत्यों ने विश्वरूपा से एकान्त में सम्पर्क स्थापित करके कहा, आपकी माता दैत्याकन्या है। इस कारण आपका कर्तव्य है कि प्रत्येक तीसरी आहति देते समय आप नाम अवश्य ही ले लिया करें।

विश्वरूपा को दैत्यों की बात समझ में आ गई। वे यज्ञ की हर तीसरी आहुति देत्या के नाम समर्पित करने लगे। फलतः देवताओं का तेज घटने लगा। देवराज की जब सही वस्त स्थिति का पता लगा तो वे इतने कोधित हुए कि उन्होंने विश्वरूपा के सिर काट दिए विश्वरूपा के मदिरा पीने वाले मख से भंवरा बना. सोमवल्ली पान वाल मुख से कबूतर बना और अन्न खाने वाले मख से तीतर बना। विश्वरूपा को हत्या करते ही ब्रह्म-हत्या के कारण देवराज का स्वरूप ही बदल गया।

विश्वरूपा की हत्या का पाप बड़ा भारी था। देवताओं के एक वर्ष तक पुरश्चरण करने पर भी जब ब्रह्म-हत्या का पाप न कटा तो देवराज ने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी की स्तुति की। उन्हें दया आ गई। वे बहस्पति देवता को साथ लेकर वहां पधारे। दोनों को इन्द्र और देवताओं पर दया आ गई। उन्होंने ब्रह्म-हत्या के पाप के चार भाग किए। उसका एक भाग उन्होंने धरती को सौंपा, फलतः धरती में ऊँचे-नीचे खड्ढे हो गए। तभी ब्रह्मा जी ने धरती को वरदान दिया कि ये गड्ढे अपने आप भर जाया करेंगे। पाप का दूसरा भाग वृक्षों को सौंपा गया, जिसके कारण उनका दुःख गोंद बनकर बहता रहता है। ब्रह्मा जी के वरदान के कारण केवल गूगल का गोंद पवित्र माना जाता है। पाप का तीसरा भाग यौवन प्राप्त स्त्रियों को दिया गया, जिसके कारण वे प्रत्येक मास अशुद्ध होकर प्रथम दिन चाँडालिनी, दूसरे दिन ब्रह्माघातिनी और तीसरे दिन धोबिन रहकर चौथे दिन शुद्ध होती हैं। पाप का चौथा भाग जल को दिया गया। जिसके कारण उस पर फैन और सिवाल आदि आता है इसी के साथ जल को वरदान दिया गया कि तू जिस पर पड़ जायेगा। उसका भार बढ़ जायेगा।

इस प्रकार बृहस्पति जी इन्द्र से सन्तुष्ट हुए और उनकी तथा ब्रह्मा जी की कृपा से इन्द्र के जैसे पाप-ताप कटे, वैसे ही बृहस्पति देवता हम सब पर कृपा करें।

Brihaspati Dev Vrat Katha benefits | गुरुवार व्रत कथा के लाभ

इस व्रत : के करने से विद्या, धन, पुत्र तथा अक्षय सुख प्राप्त होता हैं। उन्हें इस दिन केले के वृक्ष की सादर पूजा करनी चाहिए।

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सोलह सोमवार व्रत की कथा, विधि- 16 Solah Somvar Vrat Katha

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